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जी हाँ हमें न्याय चाहिए !

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आंगनवाडी केंद्र तो आपको मालूम ही होगा. भारत में बाल विकास परियोजना के अंतर्गत आंगनवाडी केंद्र चलाये जाते हैं. जिसमें महिलाओं और बच्चों के पोषण और स्वास्थ्य (टी.वी., पोलियो, और भी दूसरी बीमारियाँ) पर खास ध्यान दिया जाता है. यह हमारी सरकार का एक महत्वपूर्ण कदम है जिससे गरीब परिवार के बच्चों को मुफ्त में खाना और शिक्षा दी जाती है. यह गाँव गाँव तक फैला हुआ है. जहाँ छोटे छोटे नन्हे मुन्ने आकर बैठने के ढंग, उठने के ढंग और साथ साथ पढ़ना भी सीखते हैं. खासकर गरीब परिवारों के बच्चे खाने के लालच में पढने आते है. किस तरह मन लगा कर यह बच्चे यहाँ खाना खाने तक बैठे रहते हैं कभी आकर देखें तो मालूम चलता है. आइये देखें किस तरह इन के मुंह से भी निवाला छीना जा रहा है.
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झारखण्ड में शहरी और ग्रामीण दोनों तरह के आंगनबाड़ी केंद्र हैं. इनकी संख्या हजारों में है. आंगनवाड़ी केंद्र को 10,000 रुपये का पोषाहार दिया जाता है. जिस से दाल, चावल और भी दुसरे भोजन सामग्री ख़रीदे जाते हैं. उसमें काम कर रहे सेविकाओं को 1500 रुपये तन्खवाह में दी जाती है और सहायिकाओं को 1000 रुपये. यह हो गयी आंगनवाडी को संचालित करने का तरीका.
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इन सब कामों को सही से चलाने की जिम्मदारी होती है CDPO पर और उसके नीचे काम कर रहे सुपर्वाइज़र पर होती है. इन्हें हर केंद्र जाकर निरिक्षण करने की सलाह है. ताकि सब काम सही से चल सके. अब अन्दर के बंटवारे को देखें. सेविका जो पोषाहार का पैसा उठाती हैं उनसे सहायिकाएं कुछ ले लेती हैं. फिर सुपर्वाइज़र को भी देना ही पड़ता है. और तो और हर आंगनवाड़ी केंद्र से हर माह 1000 रुपये उस क्षेत्र की CDPO अफसर लेती हैं. तो सेविका भी कुछ खुद के लिए बचाती हैं. तब जाकर बच्चों के लिए कुछ आ पाता है.
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इस तरह बच्चों तक जो सामान कट कट कर पहुँचता है वह बहुत ही कम हो जाता है. लोग भी नाराज़ रहते है. वे सेविका और सहायिका को डांटते हैं. लेकिन इन्हें बोलकर क्या होगा? इनकी तो तनख्वाह ही कम है जो अनुचित है और इसी वजह से थोडा बचा लेती हैं. इससे कुछ खास असर नहीं पड़ेगा. पकड़ना है तो उन मगरमच्छों को पकड़ो जो अच्छी मोटी रकम तनख्वाह में उठाते हैं और इधर से दी जा रहे सरकारी मदद को भी हड़प कर जाते हैं. इस जगह से सुपर्वाइज़र और CDPO पैसा लेती हैं, उन्हें क्या हक है गरीबों के हक पर डाका डालने का. उनकी तो तनख्वाह भी काफी अच्छी है. सरकारी नौकरी पर हैं. जब नौकरीपेशा लोग ऐसा करेंगे तो गरीब क्या करेंगे? कभी कभी तो मन में आता है की क्या वास्तव में ऐसे लोगों को नौकरी करने का हक है? यही वजह है की कभी दाल में खराबी तो कभी चावल में खराबी की बात बताई जाती है. क्यूंकि इतने कम बचे पैसे में सही अन्न लाना मुश्किल ही है.
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और इन सब का लेखा जोखा देखने के लिए फिर राजधानी से ख़ास लोग यानी आडिटर आते हैं ताकि मालूम चल सके कहाँ क्या हो रहा है. कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं है? फिर आडिट के बाद अपने लाव लश्कर के साथ चले जाते है. अंदरूनी बात — आडिट के लिए जब अफसर आते हैं (जो वैसे भी कागज़ पर लिखने के अलावा कुछ भी नहीं करते) तो फिर से उनके लिए अलग से हर आंगनवाडी केंद्र से 500 या 700 रुपये लिए जाते हैं ताकि आडिट में कुछ गड़बड़ रिपोर्ट ना जाए और आडिटर भी खुश रहें. इस तरह एक बड़ी रकम आडिटर भी ले जाते हैं. आडिटर आने से पहले ही डर का माहौल बना देते हैं. जिससे उगाही में आसानी हो जाती है. इससे अच्छा तो आडिटर ना रहे तो ही ठीक.
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यह तो हुई वितरण की बात आंगनवाडी सेविका / सहायिका का चुनाव भी बहुत खिचड़ी पकाता है. खैर जो भी चुनी जाती हैं, वह पढ़ी लिखी, गरीबी, और जाती बहुलता आदि देखकर किया जाता है. लेकिन इसमें भी अनियमितताएं हैं. इसमें भी सेविका / सहायिका से मनमानी रुपये वसूल किये जाते हैं. रुपये कितने लिए जाते हैं यह पार्टी पर निर्भर करता है (कौन कितना दे सकता है). रुपये का खुलासा तो मैं नहीं करूंगा क्यूंकि जिलास्तर के लोगों को जो अब तक रुपये मिलता रहा है वह कम है और हो सकता है खुलासा करने से अच्छे लोगों के बजाय बुरे लोग जाग जाएँ, तो मांग और भी बढ़ सकती है. जी हाँ बिलकुल सही कहा मैंने जिला स्तर तक के लोगों को भी पैसा दिया जाता है. जैसे DDC . ( सब आँखों देखा हाल है).
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अब आप ही बताएं कहाँ से कोई भी तरीका काम करेगा जब चारों और ऐसे ही लोग रहेंगे. सरकार कुछ भी करे गरीबों तक सही मात्रा में उनका हक पहुँचते पहुँचते उचित की परिभाषा ही समाप्त हो जाती है. इन सरकारी अफसरों को जो चौतरफा कम रहे हैं कृपया इन्हें बंद करने को कहें, ताकि सही अनाज, भोजन हमारे गरीब परिवारों तक पहुँच सके. ताकि जो सपना हमने देखा है हर परिवार के तंदुरस्ती का और बल शिक्षा का वोह पूरा हो सके.
हमें न्याय चाहिए !!!
देश के लिए समर्पित

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