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“चलो चलो लड़के वाले आ गए हैं. तैयार हो ना ! अब तो रानी तू भी खेलेगी.” सहेली ने चुटकी लेते हुए कहा. मैं कुछ ना बोल पाई. बड़ी, छोटी सभी बहनें अपने ससुराल से घर पर आयी हुई हैं. घर में तो लगभग परिवार के सभी लोग ही मौजूद हैं.
अभी नाश्ता पानी सब होना चालू हो गया. घर के लोग तो उसमें व्यस्त हो गए. घरवालों के साथ में लड़का भी आया है. सहेलियों के साथ चुपके से लड़के को देखा. लड़का देखने में तो ठीक ही है. और आहिस्ता आहिस्ता अब तो मेरे हाथ पाँव काँप रहे हैं. बिलकुल ठन्डे हो गए हैं. कैसे जाऊं ? जाकर क्या करूँ ? कैसे रहूँ, खड़ा रहूँ या बैठी रहूँ ? जैसे जैसे टाइम बीतता गया घबराहट भी बढती ही गयी.
“बेटी ज़रा इधर आना तो” इतना सुनते ही धम्म से ध्यान टूट गया और आखिरकार बुलावा आ ही गया. अम्मी के साथ साथ ऐसे चली जैसे के मुझे चलना आता ही नहीं. लड़के को एक ही बार मैंने देखा फिर और नहीं देखा. कुछ बातें भी लोगों ने पूछी. पहले तो नाम ही पूछ लिया. और बताया लेकिन उन्हें साफ़ सुनाई ही नहीं दिया. फिर लरजती आवाज़ में दुबारा नाम बताया. दर असल मेरी आवाज़ ही सही से नहीं निकली. और किसी तरह बेडा पार लगा के आयी.
खैर देख दिखाना हो गया. अब मेहमान चलने को हुए. लड़के की राय जानने की सभी को उत्सुकता हुई. लेकिन लोगों ने कहा की खबर भिजवाएंगे. लेकिन कुछ खबर भी नहीं आयी. फिर कुछ दिनों बाद उधर से खबर आयी के लाख रुपये दहेज़ की मांग है अगर दे सकते हैं तो बात बन सकती है. लड़के को पूँजी करनी है दूकान लगाने के लिए. बात तो घर में फैल गयी.
पिताजी सोच में डूबे थे. पिताजी को देख अफ़सोस लग रहा है. कितना सोचते हैं मेरे बारे में. आखिर इतने जगह के लोग आये किसी ने दहेज़ मांगने की बात कही ही नहीं. हाँ जो गए वोह वापस नहीं आये. मेरा रंग भी तो काला है. इसी से मैं सब के thukrane की wajah बन गयी. बड़ी तो बड़ी मेरी छोटी bahnon की भी शादी हो गयी थी. आखिर उपरवाले ने मुझे ऐसा पैदा ही क्यूँ किया? मुझे गोरा रंग क्यूँ ना दिया? एक घर में इतना फर्क कर दिया. कभी कभी तो सोच कर जाने क्या क्या ख्याल आते हैं.
मालूम चला अब्बा चाचा के घर गए हैं उस ज़मीन के टुकड़े को बेचने के लिए जिसमें दोनों भाइयों का हिस्सा है. लेकिन चाचा ने अभी ज़मीन बेचने से इनकार कर दिया. और पैसे की मदद करने से भी मुकर गए. ऊपर से समझाने लगे की ऐसे बहुत से रिश्ते आयेंगे, दहेज़ देने की बिलकुल ज़रूरत नहीं. पैसे लेकर शादी करने वाले लोगों का क्या भरोसा? आप थोडा धैर्य रखें. पिताजी को तो मानों ऐसा लगा जैसे सांप ने डस लिया. “यह कैसी बातें करते हो, तुमने, मैंने सब ने दहेज़ लिया था, क्या मैंने तुम्हारी भाभी को दुःख दिया या छोड़ दिया, नहीं ना. देख छोटे बहुत दिनों के बाद एक रिश्ता आया है. तुम्हें तो मालूम ही है. उसकी उम्र की एक भी लड़की नहीं है आसपास में. यहाँ तक की उसकी छोटी बहन की भी शादी हो गयी. उसकी उम्र को देख कैसे बीतती जा रही है. आज अगर यह रिश्ता छोड़ दिया तो शायद ही उसका रिश्ता कहीं लगे. उसका रंग भी तो उतना साफ़ नहीं है. और तनाव हो गया दोनों के बीच में.
घर आकर बात हुई. मेरे भाइयों ने भी दहेज़ देने से मना करने की बात ही पर राय देनी चाही. पर पिताजी ने उन्हें खामोश कर दिया. अब पता नहीं मेरा क्या होगा? इसमें मेरा तो कोई दोष नहीं. आखिर मेरे जैसी लड़कियों का क्या होगा? सभी लड़के तो सुन्दर लड़कियां ही चाहते हैं. हम कहाँ जायेंगे? अगर दहेज़ देने से हम जैसों का घर बसता है तो दहेज़ क्यूँ ना दें? पिताजी का भी यही कहना है की “कोई बताये की मैं यह दहेज़ क्यूँ ना दूं? है कोई हल तुमलोगों के पास? मुझे मना कर रहे हो, शायद इसलिए के तुम्हारे हिस्से में कमी हो जाएगी. दहेज़ बुरा है या भला यह मैं अभी नहीं देख सकता, पहले मुझे अपनी बिटिया की देखनी है.”
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